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वा॒मम॒द्य स॑वितर्वा॒ममु॒ श्वो दि॒वेदि॑वे वा॒मम॒स्मभ्यं॑ सावीः। वा॒मस्य॒ हि क्षय॑स्य देव॒ भूरे॑र॒या धि॒या वा॑म॒भाजः॑ स्याम ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vāmam adya savitar vāmam u śvo dive-dive vāmam asmabhyaṁ sāvīḥ | vāmasya hi kṣayasya deva bhūrer ayā dhiyā vāmabhājaḥ syāma ||

पद पाठ

वा॒मम्। अ॒द्य। स॒वि॒तः॒। वा॒मम्। ऊँ॒ इति॑। श्वः। दि॒वेऽदि॑वे। वा॒मम्। अ॒स्मभ्य॑म्। सा॒वीः॒। वा॒मस्य॑। हि। क्षय॑स्य। दे॒व॒। भूरेः॑। अ॒या। धि॒या। वा॒म॒ऽभाजः॑। स्या॒म॒ ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:71» मन्त्र:6 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:15» मन्त्र:6 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह प्रजाओं के लिये क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सवितः) ऐश्वर्य्य के देनेवाले (देव) दिव्यगुणयुक्त राजन् ! जैसे (हि) जिस कारण से आप (अद्य) अब (वामम्) प्रशंसा करने योग्य सुख (उ) और (श्वः) अगले दिन (वामम्) प्रशंसा करने योग्य सुख तथा (दिवेदिवे) प्रतिदिन (वामम्) अति उत्तम सुख (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (सावीः) उत्पन्न करो उससे (अया) इस (धिया) प्रज्ञा वा कर्म से (भूरेः) बहुत प्रकार के (वामस्य) प्रशंसित (क्षयस्य) घर के (वामभाजः) वामभाज अर्थात् प्रशंसित सुख भोगनेवाले हम लोग (स्याम) हों ॥६॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! जिससे आप हम प्रजाजनों के लिये प्रशंसनीय सुख को उत्पन्न करते और रक्षा का विधान करते हो, वैसे हम लोग सुख से धन, घर और प्रशंसित कामों के सेवनेवाले होकर आपकी आज्ञा में नित्य वर्तें ॥६॥ इस सूक्त में सविता, राजा और प्रजा के कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह इकहत्तरवाँ सूक्त और पन्द्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स प्रजाभ्यः किं कुर्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे सवितर्देव ! यथा हि त्वमद्य वामसु श्वो वामं दिवेदिवे वाममस्मभ्यं सावीस्तस्मात् तयाऽया धिया भूरेर्वामस्य क्षयस्य वामभाजो वयं स्याम ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वामम्) प्रशस्यसुखम् (अद्य) इदानीम् (सवितः) ऐश्वर्यप्रद राजन् (वामम्) प्रशंसनीयम् (उ) (श्वः) आगामिदिने (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (वामम्) अत्युत्कृष्टम् (अस्मभ्यम्) (सावीः) जनय (वामस्य) प्रशस्यस्य (हि) यतः (क्षयस्य) गृहस्य (देव) दिव्यगुणयुक्त (भूरेः) बहुविधस्य (अया) अनया (धिया) प्रज्ञयाऽनेन कर्मणा वा (वामभाजः) ये वामं भजन्ति ते (स्याम) भवेम ॥६॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! यस्माद्भवानस्मभ्यं प्रजाजनेभ्यो नित्यं प्रशंसनीयं सुखं जनयति रक्षां विधत्ते तस्माद्वयं सुखेन धनगृहप्रशस्तकर्मणां सेवका भूत्वा भवदाज्ञायां नित्यं वर्त्तेमहीति ॥६॥ अत्र सवितृराजप्रजाकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकसप्ततितमं सूक्तं पञ्चदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! तू आमच्या प्रजेसाठी प्रशंसनीय सुख उत्पन्न करतोस. रक्षणाचे नियम बनवितोस. त्यासाठी आम्ही सुखाने धन, घर व प्रशंसित कार्य करून नित्य तुझ्या आज्ञेत राहावे. ॥ ६ ॥